तमिलनाडु की राजनीति का खत्म हुआ एक युग, जानिए करुणानिधि से जुड़ी खास बातें
द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम के सर्वेसर्वा यानी एम करूणानिधि का 94 वर्ष की उम्र में मंगलवार की शाम को निधन हो गया। उन्होंने अपनी अंतिम सांस चेन्नई के कावेरी अस्पताल में लिया। करूणानिधि दक्षिण भारत की राजनिति के प्रमुख स्तंभ थे। 5 बार तमिलनाडु सुबे के मुख्यमत्री रहे करूणानिधि के देहांत से उनके समर्थकों में शोक की लहर दौड़ गई है। साथ ही साथ पूरे देश में उनके निधन का दुख है। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा कांग्रेस प्रमुख सहित कई बड़े नेताओं ने उनके निधन पर दुख जताते हुए, उन्हें विनम्र श्रद्धाजंलि दी है।
राजनिति में करूणानिधि की एंट्री – सिर्फ 14 वर्ष के छोटे उम्र में करूणानिधि ने राजनिति में पहली बार कदम रखा था। करुणानिधि की राजनिति तब शुरू हुई जब 1937 में दक्षिण के राज्यों में हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य भाषा की तरह लाया गया। इसी के विरोध में हिंदी हटाओ नामक आंदोलन की शुरूआत हुई जिसकी अगुवाई करूणानिधि ने की थी। इसके खिलाफ उन्होंने खूब लिखा और 20 वर्ष की उम्र में करुणानिधि ने फिल्म की दुनिया में पटकथा लेखक के रूप में अपनी कैरियर की शुरूआत की थी। 1949 में बनी पार्टी डीएमके की स्थापना अन्नादुराई ने की थी । और करूणानिधि को राजनिति में एंट्री भी अन्नादुराई ने कराई थी । उसके बाद से करूणानिधि और अन्नादुराई की नजदिकियाँ बढ़ती चली गईं और करूणानिधि पार्टी के सचिव बना दिए गए।
1969-70 में मिली पार्टी की कमान – जब भारतीय राजनिति बदलाव की ओर थी तभी दक्षिण भारत में भी राजनितिक हलचल हो रही थी। और 1967 में पहली बार डीएमके ने राज्य में पूर्ण बहुमत हासिल की और अन्नादुराई राज्य के मुख्यमंत्री बने। दो साल बाद उनके निधन से करूणानिधि को पार्टी की कमान मिली। और 1971 में पुनः राज्य में पूर्ण बहुमत हासिल कर सत्ता में काबिज हुए और राज्य के मुख्यमंत्री बने। करूणानिधि राज्य के 5 बार सीएम बने और 13 बार विधायक बनने का रिकॉर्ड हासिल किया। डीएमके एक ऐसी पार्टी रही है जो केंद्र के सत्ता में सभी के साथ चाहे वो एनडीए हो या यूपीए शामिल रही है।
तमिलनाडु में राजनिति के एक युग का अंत- राजनितिक विशेषज्ञ ये मान रहे हैं कि करूणानिधि के निधन से तमिलनाडु के राजनिति का यह एक अध्याय समाप्त हुआ है। करूणानिधि ने सिर्फ सियासत के मैदान में लड़ाई नहीं लड़ी बल्कि विचारधारा के स्तर पर भी बखूबी लड़ाई की है। उनके निधन से आज टीवी स्क्रीन से लेकर अखबारों तक में उनके समर्थकों के उदास चेहरे नजर आ रहे हैं लेकिन इस शख्स ने दक्षिण और तमिलनाडु के सूबे में गजब का राजनितिक इतिहास तैयार किया है।